सत्य नारायण व्रत कथा चौथा अध्याय Satya Narayan vrat katha – 4

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सत्य नारायण के व्रत की कथा में पांच अध्याय हैं। चौथे अध्याय की कथा यहाँ बताई गई है। सत्य नारायण कथा के चौथे अध्याय की कथा भक्तिभाव से यहाँ पढ़ें और आनन्द प्राप्त करें।

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सत्यनारायण व्रत कथा का पहला अध्याय

सत्य नारायण कथा का दूसरा अध्याय

सत्य नारायण व्रत कथा का तीसरा अध्याय 

सत्य नारायण कथा का चौथा अध्याय

Satya Narayan katha adhyay 4

सूत जी बोले –

व्यापारी ने मंगलाचार आदि करके यात्रा आरम्भ की और जमाई के साथ अपने नगर की ओर चल पड़ा। थोड़ी दूर निकलने उन्हें एक दंडी सन्यासी नजर आया। ये दंडी का वेश धारण किये स्वयं सत्य नारायण भगवान थे। उन्होंने व्यापारी से पूछा –

हे साधू ! तुम्हारी नाव तो बड़ी अच्छी है। इसमें क्या ले जा रहे हो ?

अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला – अरे दंडी ! तुम क्यों पूछ रहे हो ? क्या तुम्हे कुछ धन पाने इच्छा हो रही है ? सन्यासी को धन का मोह नहीं होना चाहिए। वैसे भी मेरी नाव में तो बेल और पत्ते भरे हुए हैं।

व्यापारी के कठोर वचन सुनकर भगवान ने कहा – तुम्हारा वचन सही हो ! ऐसा कहकर वे वहां से चले गए। कुछ दूर जाकर किनारे पर बैठ गए। ( सत्यनारायण व्रत कथा चौथा अध्याय…. )

दंडी के जाने के बाद व्यापारी ने जब नाव को देखा तो वो एक तरफ से ऊंची उठ गई थी। देखा तो उसमे बहुत बेल पत्ते  भरे हुए थे। अपना धन वहाँ न पाकर व्यापारी घबरा गया और मूर्छित होकर गिर पड़ा। मूर्छा खुलने पर शोक प्रकट करने लगा।

उसका दामाद बोला यह जरुर दंडी का श्राप है। हमें उनकी शरण में जाना चाहिए। दामाद की बात मानकर वे दोनों दंडी के पास पहुंचे।

भक्तिभाव से नमस्कार करके व्यापारी कहने लगा – मैंने आपसे झूठ बोला उसके लिए मुझे क्षमा करें। वह जोर जोर से विलाप करते हुए रोने लगा।  ( Satya narayan vrat katha chautha adhyay…. )

दंडी भगवान बोले –

हे वणिक ! मेरी अवज्ञा करने से बार बार तुम्हे दुःख प्राप्त हुआ है। तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है।

साधू बोला –

हे भगवन ! आपकी माया से मोहित ब्रह्मा आदि भी आपके रूप को नहीं जानते , तो मैं अज्ञानी भला कैसे जान सकता हूँ। मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा अवश्य करूँगा। मेरी रक्षा करो। मुझे धन की बहुत आवश्यकता है। कृपया मुझे मेरा धन वापस लौटा दो।

उसके ग्लानि से भरे ऐसे वचन सुनकर भगवान का क्रोध शांत हो गया व्यापारी की इच्छा पूरी करके अन्तर्धान हो गए। व्यापारी नाव के पास लौटे तो उसे नाव में अपना धन वापस मिल गया जिसे पाकर बहुत प्रसन्न हुआ।

उसने उसी समय सत्यनारायण भगवान की पूजा की और अपने नगर के लिए फिर से यात्रा शुरू की।

अपने नगर के बहुत समीप पहुँचने पर उसने एक दूत को घर पर सूचित करने के लिए भेजा। दूत ने साधू के घर जाकर उसकी पत्नी को उनके समीप होने की सुचना दी। साधू की पत्नी ने हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन किया और पुत्री से कहा – मैं अपने पति के दर्शन के लिए जा रही हूँ तुम भी काम निबटाकर और भगवान का प्रसाद लेकर आ जाना।

माता के वचन सुनकर कलावती जल्दी में काम पूरे करके पति के पास आने लगी। उसे प्रसाद का ध्यान नहीं रहा। प्रसाद की अवज्ञा होने के कारण सत्यदेव ने रुष्ट होकर उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। पति को न पाकर वह रोती कलपती जमीन पर गिर गई।

इस तरह नाव को डूबा हुआ और कन्या को रोता देखकर व्यापारी दुखी होकर बोला –

हे प्रभु ! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करो। अब किसी प्रकार की भूल नहीं होगी। इस पर वहाँ आकाशवाणी हुई –

हे साधू ! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है। यदि वह प्रसाद खाकर वापस लौटे तो उसका पति उसे मिल जायेगा। ( सत्यनारायण व्रत कथा चौथा अध्याय…. )

ऐसी आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँच कर भक्तिभाव से प्रसाद खाया।  फिर आकर पति के दर्शन किये। इसके बाद व्यापारी ने बंधू बांधवों सहित भगवान सत्यदेव का विधि पूर्वक पूजन किया। उस दिन से वह हर पूर्णिमा को श्री सत्य नारायण का पूजन करने लगा।  फिर इस लोक से सुख भोगकर अंत में स्वर्ग लोक को गया।

यहाँ चौथा अध्याय समाप्त हुआ।

बोलो सत्यनारायण भगवान की ….जय !!!

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